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भोजन की थाली छीनने वाली आयोजक की ऐसी की तैसी! गाजीपुर लिटरेचर फेस्टिवल में साहित्य की जगह अहंकार और हाईजैक का हंगामा!

गाजीपुर। में आयोजित लिटरेचर फेस्टिवल उस समय शर्म और विवाद का प्रतीक बन गया जब इस कार्यक्रम में स्थानीय जनप्रतिनिधि और फेस्टिवल एक्टिविस्ट संजय राय ‘मंटू’ (पूर्व ग्राम प्रधान, गड़ूआ गांव) के साथ अपमानजनक व्यवहार किया गया।

यह कार्यक्रम नंद रेजीडेंसी, बंशी बाजार में आयोजित था, जिसमें जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित हुए थे और कई विशिष्ट अतिथि मंच पर मौजूद रहे।

कार्यक्रम का संचालन भारत डायलॉग द्वारा किया जा रहा था, जो इस आयोजन का मुख्य आयोजक था। लेकिन चर्चा यह है कि कार्यक्रम शुरु होने से पहले ही इसे हाईजैक कर लिया गया, और दिल्ली से आई एक आयोजक टीम ने पूरे प्रबंधन पर कब्जा कर लिया
इसके बाद कार्यक्रम का स्वरूप पूरी तरह बदल गया — साहित्य और संवेदना की जगह दिखावा, भेदभाव और अहंकार ने ले ली।

इसी दौरान जब संजय राय ‘मंटू’, जिन्होंने इस कार्यक्रम के लिए कई दिनों तक मेहनत की, निमंत्रण पत्र बांटे और व्यवस्थाओं में हाथ बँटाया,
वे अपने साथियों के साथ भोजन स्थल की ओर बढ़े। तभी दिल्ली की आयोजक पूजा प्रियंवदा ने उनके हाथ से भोजन की प्लेट छीन ली और तिरस्कार भरे लहजे में कहा —

यहां सिर्फ VIP लोगों के लिए व्यवस्था है, आप जैसे नहीं खा सकते !

यह सुनकर मंटू प्रधान स्तब्ध रह गए। अपमान से भरे वे चुपचाप वहां से निकल गए।
बाद में उन्होंने सोशल मीडिया पर अपना दर्द साझा करते हुए लिखा —

मैंने इस कार्यक्रम के लिए अपनी पूरी मेहनत दी, गाजीपुर में लोगों से संपर्क किया, निमंत्रण दिए। लेकिन जिस कार्यक्रम में अपने ही जिले के लोगों को अपमानित किया जाए, वहां खड़ा रहना मुश्किल है।

उनकी यह पोस्ट सोशल मीडिया पर तेज़ी से वायरल हुई,
और गाजीपुर के लोगों में आयोजक टीम और पूजा प्रियंवदा के प्रति गहरी नाराज़गी फैल गई।
कई लोगों ने लिखा कि “भारत डायलॉग के नाम पर चल रहे इस कार्यक्रम को कुछ लोगों ने ‘हाईजैक कर अहंकार का अड्डा’ बना दिया है।”

जनता ने कहा —

“यह अपमान सिर्फ संजय राय मंटू का नहीं, गाजीपुर की उस मिट्टी का भी है जिसने हर बार साहित्य और संस्कृति को सम्मान दिया है।”

अब सवाल यह उठता है —
क्या करोड़ों के बजट में आयोजित इस तथाकथित साहित्यिक उत्सव में इंसानियत की थाली इतनी छोटी हो गई
कि उसमें स्थानीय कार्यकर्ताओं और आम लोगों के लिए जगह ही नहीं बची?

साहित्य के नाम पर अगर संवेदना ही छिन जाए,
तो ऐसे फेस्टिवल सिर्फ मंच नहीं, समाज पर कलंक बन जाते हैं।

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