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कारवां गुजर गया… गाजीपुर गुबार देखता रह गया!

जब अपनों के विश्वास को बहरूपियों ने भावनाओं की थाली से छीन लिया 

गाजीपुर। अपनी मिट्टी की सोंधी खुशबू, अपनी सरलता और अपनत्व के लिए जाना जाता है। लेकिन इस बार यह सरलता कुछ बहरूपियों के हाथों ठगी सी लग रही है।

एक चेहरे पर कई चेहरों का मुखौटा लगाए कुछ लोग आए, मुस्कुराए, अपनापन जताया, और फिर वही पुराने गीत की पंक्तियाँ हकीकत बन गईं —

“एक चेहरे पर कई चेहरा लगा लेते हैं लोग,
जब चाहे अपनों को भी बेगाना बना देते हैं लोग…”

गाजीपुर के लिटरेचर फेस्टिवल का समापन तो हो गया, लेकिन इसके बाद जो गुबार बचा, उसने हर संवेदनशील दिल को झकझोर दिया।
जनपद के अपने साहित्यकार, जिनकी कलम ने इस मिट्टी को गौरवान्वित किया, उनकी रचनाएँ जब ठेलों पर प्रदर्शित हुईं तो कई दिलों में टीस उठी।
अपने ही साहित्यकारों को हाशिये पर रखकर बाहर से आए आयोजकों ने मंच पर कब्ज़ा जमाया, और अंत में गाजीपुर की आत्मा पर एक व्यंग्य छोड़ गए – “कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे…”

इसी पोस्ट के साथ आयोजक विवेक सत्य मित्र ने फेसबुक पर अपनी टीम की तस्वीर साझा की, मानो किसी विजय अभियान का उत्सव मना रहे हों।
शहर के प्रतिष्ठित डॉक्टर डी.पी. सिंह ने अपने फेसबुक पर अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए लिखा –

“गाजीपुर की सम्मानित जनता को दिल्ली से आए बहरूपिए कैसे बेवकूफ बनाकर चले गए।”

यह टिप्पणी सिर्फ एक वाक्य नहीं, बल्कि पूरे जनपद की मासूमियत और भावनाओं पर गहरा कटाक्ष थी।
जनपद वासियों के भीतर जो प्रेम, विश्वास और आत्मीयता है, वही इस बार उनके लिए छल का कारण बन गई।

कहा जाता है – “गाजीपुर का आदमी दिल का साफ़ होता है, जो एक बार अपनाता है तो पूरी तरह से।”
पर इस बार यही अपनापन, किसी के हाथ की थाली बन गया, संजय राय ‘मंटू’ (प्रधान) के हाथ से खींच लिया गया एक प्रतीकात्मक दृश्य, जिसने पूरे जिले को शर्मसार कर दिया।

अब सवाल यह नहीं कि थाली किसकी थी या किसने छीनी, बल्कि यह है कि गाजीपुर का सम्मान किसने छीना?
कितनी बार यह जनपद बाहर से आने वालों को “भैया-बहिनी” कहकर अपना बना लेता है, कितनी बार अपना कलेजा प्लेट में परोस देता है, और अंत में वही लोग “करवां गुजर गया” लिखकर हवा में विलीन हो जाते हैं।

अगर यही हालात रहे तो वाकई —

“हम सभी गुबार ही देखते रह जाएंगे,
और कारवां वाले कारवां लेकर दिल्ली निकल जाएंगे…”

अब वक्त आ गया है कि गाजीपुर के लोग पहचानें –
कौन अपना है और कौन सिर्फ मंच की रोशनी में “अपना” बनता है।
वरना अगली बार जब कोई नटवरलाल जैसी युगल जोड़ी मुस्कुराकर हाथ मिलाएगी,
तो फिर वही कहानी दोहराई जाएगी —
विश्वास टूटेगा, और गाजीपुर का भोला विश्वास एक बार फिर धोखा खा जाएगा।


 अंत में बस इतना ही :
गाजीपुर का लिटरेचर फेस्टिवल तो बीत गया,
पर गाजीपुर का दर्द अभी बाकी है।
यह सिर्फ एक आयोजन नहीं था —
यह विश्वास और अस्मिता की थाली थी,
जिसे कुछ लोगों ने मुस्कान ओढ़कर छीन लिया।

“कारवां गुजर गया… लेकिन गाजीपुर अभी भी गुबार देख रहा है।”

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