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औरतें क्यों सजती हैं? — आईने में झांकती आत्मा की आवाज़! 

गाजीपुर।

जब कोई औरत घर से बाहर निकलती है — चेहरे पर हल्की मुस्कान, आँखों में आत्मविश्वास और सादगी के साथ सजा रूप — तो कई निगाहें उसे परखने लगती हैं।

कोई कहता है, “देखो, कितनी सज-धज कर निकली है!”
पर बहुत कम लोग यह समझते हैं कि वह सजती क्यों है।

असल में, औरत का सजना किसी दिखावे या आकर्षण का प्रदर्शन नहीं, बल्कि उसके मन की भाषा है।
वह सजती है क्योंकि सजना उसके लिए आत्मसम्मान और आत्मविश्वास का प्रतीक है।

जब जीवन की जिम्मेदारियाँ उसे थका देती हैं, तो वह अपनी थकान पर थोड़ा रंग, थोड़ा काजल और थोड़ी मुस्कान चढ़ा देती है — ताकि आईना यह न कहे कि वह हार गई, बल्कि यह कहे कि वह अब भी जिंदा है, मुस्कुरा रही है, और आगे बढ़ रही है।

हमारे समाज ने सदियों से औरतों को सुंदरता से जोड़ा,
उन्हें सिखाया कि “अच्छा दिखना ही उनकी पहचान है।”
औरतों ने इस परंपरा को बोझ नहीं, बल्कि संस्कार बना लिया। क्योंकि वे जानती हैं — कपड़ों की तह में, चूड़ी की छनक में, और चेहरे की चमक में उनका अस्तित्व छिपा नहीं, बल्कि झलकता है।

साज-सज्जा उनके लिए एक तरह का कवच है —
कभी दर्द छिपाने का, कभी हालात से लड़ने का, और कभी खुद को याद दिलाने का कि “मैं भी महत्वपूर्ण हूँ।”
वह सजती है ताकि ज़िंदगी के शोर में भी अपने भीतर की आवाज़ सुन सके।

पुरुष शायद कम सजते हैं, क्योंकि समाज ने उनसे कहा —
तुम्हें बस कमाना है, सुंदर नहीं दिखना! पर औरत के लिए सजना कमज़ोरी नहीं, बल्कि आत्म-प्रेम की अभिव्यक्ति है!

इसलिए अगली बार जब कोई औरत सजे-धजे घर से निकले तो यह मत सोचिए कि वह किसी को दिखाने निकली है — सोचिए, वह खुद को याद दिलाने निकली है कि वह अब भी ख़ूबसूरत है — भीतर से भी, बाहर से भी।

 

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