सियासतदानों का एक घऱाना ऐसा भी

गाजीपुर। संगीत की तरह अब राजनीति में भी घराने प्रचलन में हैं और जब राजनीतिक घरानों की बात चली है तब गाजीपुर के भी एक घराने की बात हो ही जाए।
यह घराना राजनीति में अपना अलग सिद्धांत गढ़ा है। अव्वल कि यह घराना पैसा कमाने के लिए राजनीति नहीं करता है। बल्कि अपने अकूत पैसे के बूते राजनीति करता है। राजनीति से सुविधा, सेवा नहीं चाहिए…राजनीति से उसे बस पॉवर, पोजीशन चाहिए। दलीय राजनीति को लेकर घराने का सूत्र वाक्य है-दल से हम नहीं। दल हमसे है…। सो घराने के लिए स्वंय की प्रतिबद्धता ऊपर और दल की प्रतिबद्धता नीचे रहती है।…तब दल के झंडे का क्या मायने। वक्त, जरूरत के हिसाब से कभी दू रंगा। कभी एक रंगा। नारे भी एक नहीं। कभी जय समाजवाद। कभी जय श्रीराम। कभी जय भीम। दल का अनुशासन। दल ही जानें…अपनी अंतरात्मा जिंदाबाद। दल का संस्कार। दल ही जानें…अपना आचार जिंदाबाद।
घराना मानता है कि दल केवल वोट दिलाता है जबकि दल का कोई प्रभावी नेता काम बनाता है। जरूरत पड़ने पर उस नेता की परिक्रमा की जाए। वह नेता चाहे तो उसे मुंहमांगा निछावर दिया जाए। नीचे कार्यकर्ता चिलपौं मचाते रहें। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अपने विरुद्ध हाईकमान तक जाने वाली हर आवाज को वह नेता आड़ लेगा।
घराना इधर अपनी एक अलग तरकीब भी इजाद कर लिया है। अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए ठोस रणनीति बनाने के साथ ही उसका विकल्प भी तैयार रखने का। एक दल टिकट नहीं दिया तो दूसरे दल में टिकट का जुगाड़ पक्का रहे।
घराने की एक राजनीतिक खासियत यह भी है कि उसकी महत्वाकांक्षाएं हर चुनाव में उगती, उफनती हैं। पंचायत से लगायत लोकसभा चुनाव तक…और अब बारी विधानसभा चुनाव की है। घऱाने की निगाह जंगीपुर सीट पर टिक गई है। अभी मौजूदा दल के दू रंगे झंडे संग क्षेत्र में चहलकदमी शुरू हो है।…टिकट के सवाल पर घराने का यही जवाब आ रहा है।…दल टिकट देगा तो ठीक…नहीं देगा तो ठीक…हमें हर हाल में लड़ना है…हम हर हाल में लड़ेंगे…। इस अंदाज-ए-बयां से साफ है कि घराने को मौजूदा दल के अनुशासन के डंडे की रत्ती भर परवाह नहीं। इसके पीछे बताया जा रहा है कि घराने ने बतौर विकल्प एक रंगे झंडे वाले दल को ढूंढ लिया है। उस दल के पड़ोसी जिले से एक विधायकजी वहां जुगाड़ बना दिए हैं।…यानी रणभूमि में जय श्रीराम नहीं तो जय भीम बोला जाएगा।
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